लो फिर-
उड़ चला ये मन,
दूर कहीं-
आकाश में;
बिंध स्मृति के पाश में...
रात कसमसाई,
भींगी-रसमसाई,
चाँदनी में
धुली-नहाई,
किसी की आस में;
बिंध स्मृति के पाश में...
फिर कोई
गीत गूँजा,
सोते से जागा,
मन पीछे भागा;
भाग न सका,
रह गया फँसकर-
उसके मृदु हास में;
बिंध स्मृति के पाश में...
उसकी बातें-
रसभरी-सी,
वो आँखें-
कुछ डरी-सी;
याद आईं तो-
खिल गईं कलियाँ,
यादों के अमलताश में;
बिंध स्मृति के पाश में...
अधरों पर रस-
अमृत-घट का,
बावरा-सा मन-
बहुत ये भटका
न जाने क्यों-
उसके साँसों की
भीनी-सी मदिर सुवास में;
बिंध स्मृति के पाश में...
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