Friday, July 3, 2009

मुहब्बत के ये पल...

मुहब्बत के ये पल याद रखना
हम हों ना हों कल, याद रखना

तन्हाई में जब कभी आयेगा ख़याल
भीगेंगे आँखों के कँवल, याद रखना

मेरी दुनिया, मेरी ज़िंदगी- तुम्हीं से
हुई है मुकम्मल, याद रखना

पहनोगे जब भी मेरी यादों के लिबास
हवा उड़ाएगी आँचल, याद रखना

मैं याद रखूँगा ये शोखियाँ तुम्हारी
तुम भी मेरे आँसू चंचल, याद रखना


Friday, June 19, 2009

टूट कर बिखरा, तारा था कोई...

टूट कर बिखरा, तारा था कोई
दिल भी मेरा बंजारा था कोई

सहरा-सहरा, दरिया-दरिया
भटका बहुत, आवारा था कोई

तमाम उम्र तन्हाईओं के तले रहा
कितना बेआसरा-बेसहारा था कोई

ज़िक्र भूले से मेरा जो आ गया
इतना कहा- 'बेचारा था कोई'

उनको हमसे कोई वास्ता ही नहीं
कैसे कहें कि हमारा था कोई

काश! हम भी उनको प्यारे होते
कि हमको भी प्यारा था कोई


Friday, May 29, 2009

उदास सी तुम...

सुनो सुनयना, भरे-भरे से क्यों हैं तेरे नैना
ग़म क्या है तुझको, देखो- मुझे दे दो ना...

रूठी खुद से हो कि खफा हो जिंदगी से
छोड़ो भी ना, मिलता क्या है यहाँ बँदगी से
जो हुआ, हुआ - अब जाने दो ना...

आओ ना- तमन्ना की राह पर चलेंगे मिलके
खुली फ़िज़ा में साथ उड़ेंगे दो पंछी दिल के
आओ ना साथ मेरे, आसमाँ छू लो ना...

उठो, हँसो, खिलो, निखरो- फूल की तरह
क्यों बिखरती हो यूँ सहरा के धूल की तरह
आओ आज मुट्ठी में सारा आकाश भर लो ना...

टिमटिमाती लौ सी तुम, इक प्यास सी तुम
क्यों बैठी हो इस तरह उदास सी तुम
बिखेरो हँसी, चेहरे पर उजास कर लो ना...


Friday, May 22, 2009

कहना तो है तुमसे...

कहना तो है तुमसे, डर है- तुम्हें खो न दूँ
साथ हो तो हँसी है, फिर कहीं रो न दूँ

यकीं मानो मेरा- कुछ तो नहीं मेरे पास देने को
वरना कुछ हो मेरे पास, और तुम्हें वो न दूँ

तुख्मे-मुहब्बत लिए भटकता फिरता हूँ शहरो-सहरा
चैन से कैसे बैठ रहूँ, जब तलक इन्हें बो न दूँ

ज़िंदगी की ताख पर बेतरतीब से पड़े हैं कुछ ख्वाब
ग़म फुर्सत दे तो, करीने-से इनको सँजो न दूँ

सफीना दिल का उतार तो दिया है लहरों पर, मगर
डरता हूँ- कहीं अपने हाथों, कश्ती अपनी डुबो न दूँ

जज्ब तू मुझमें है कि मैं तुझमें हूँ- कैसे कहूँ
बेखबर हूँ खुद से, खुद को कहीं तुझमें समो न दूँ

तुम्हें भूलने कि जिद में खुद को भूल गया हूँ
कहाँ मुमकिन- तू याद आये और मैं रो न दूँ


Friday, May 15, 2009

दर्द के मुकम्मल तराने पे...

दर्द के मुकम्मल तराने पे ना गिरे
आँसू उनके मेरे अफ़साने पे ना गिरे

सजदे में ज़माना है मगर, मेरी जिद-
कि सर मेरा उनके बुतखाने पे न गिरे

जिक्र उनकी बुलंदी के होते हैं अक्सर
शख्स, जो लाख आजमाने पे न गिरे

कमी उनकी ठोकर में नहीं थी मगर
हम थे, जो लड़खडाने पे न गिरे

लम्हा वो भी बारहा आया जिंदगी में
अश्क जब लाख आजमाने पे ना गिरे

यूँ तो बहुत गिरे मेरे आँसू
मगर किसी के शाने पे ना गिरे

ये स्याह मंजर, ये सब धुँआ-धुँआ
कहर आज कहीं जमाने पे न गिरे

ऐ अब्र! बस इतना खयाल रखना
बर्क़ कहीं किसी दीवाने पे ना गिरे


Tuesday, May 12, 2009

हँसो-

हँसो-
कि शायद,
तुम्हारी हँसी सुने बगैर
गुंचे खिलें ही नहीं!

हँसो-
कि शायद,
तुम्हारी हँसी सुनकर
धनक फूटते हों कहीं!

हँसो-
कि तुम्हें हक़ है
हँसने का -
मुझ पर भी!

मेरी तो आदत है-
कोई हँसे,
तो लगता है-
कहीं मुझ पर तो नहीं!

हँसो-
हो सके तो
मेरे आँसुओं पर भी -
कि मेरे आँसू,
तुम्हारी हँसी से
ज्यादा कीमती नहीं!


Sunday, May 10, 2009

आज फिर...

आज फिर,
एक अनमना-सा अहसास
आकर बैठ गया मेरे पास,
न जाने कहाँ से
एक टुकड़ा खामोशी
पसर गई आँखों में
और मैंने फिर से
अपनी तन्हाई के
मासूम-से चेहरे को
जी-भर सहलाया था,
चेहरा- जिस पर
आँसुओं की कुछ
सूखी लकीरें थीं अब तक,
जैसे अभी-अभी
रोकर आई हो!

मैं चाहता था -
कुछ पूछूँ उससे,
पर इतने में
उसने पूछ डाले कई सवाल,
खड़े कर दिए
कितने ही प्रश्नचिह्न
मेरे अस्तित्व की
सार्थकता पर...
क्या हूँ मैं, क्यों हूँ मैं -
एक बेनाम-सी उलझन,
एक बेकार-सा दर्द...
क्या जिन्दगी और कुछ भी नहीं?