साथ हो तो हँसी है, फिर कहीं रो न दूँ
यकीं मानो मेरा- कुछ तो नहीं मेरे पास देने को
वरना कुछ हो मेरे पास, और तुम्हें वो न दूँ
तुख्मे-मुहब्बत लिए भटकता फिरता हूँ शहरो-सहरा
चैन से कैसे बैठ रहूँ, जब तलक इन्हें बो न दूँ
ज़िंदगी की ताख पर बेतरतीब से पड़े हैं कुछ ख्वाब
ग़म फुर्सत दे तो, करीने-से इनको सँजो न दूँ
सफीना दिल का उतार तो दिया है लहरों पर, मगर
डरता हूँ- कहीं अपने हाथों, कश्ती अपनी डुबो न दूँ
जज्ब तू मुझमें है कि मैं तुझमें हूँ- कैसे कहूँ
बेखबर हूँ खुद से, खुद को कहीं तुझमें समो न दूँ
तुम्हें भूलने कि जिद में खुद को भूल गया हूँ
कहाँ मुमकिन- तू याद आये और मैं रो न दूँ
4 comments:
तुम्हें भूलने कि जिद में खुद को भूल गया हूँ
कहाँ मुमकिन- तू याद आये और मैं रो न दूँ
सुन्दर।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
उम्दा भावाव्यक्ति!! बधाई.
ज़िंदगी की ताख पर बेतरतीब से पड़े हैं कुछ ख्वाब
ग़म फुर्सत दे तो, करीने-से इनको सँजो न दूँ
खूबसूरत ग़ज़ल है.............लाजवाब शेर हैं
दिल को छु गयी आपकी ये ग़ज़ल...
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