Saturday, November 10, 2012

दिन वो बहुत याद आते हैं...



चाँद कटोरा 
मन खटोला 
कटोरे से माँ खिलाती थी 
दिन वो बहुत याद आते हैं 

मीठी झिरकी 
पाँव फिरकी 
झिड़क के माँ पछताती थी 
दिन वो बहुत याद आते हैं 

दोस्त क़िताब 
दिल में ख्व़ाब 
क़िताब नया कुछ सिखाती थी 
दिन वो बहुत याद आते हैं 

बासी रोटियाँ 
बुझी अंगीठियाँ 
कभी यूँ भी गुज़र जाती थी 
दिन वो बहुत याद आते हैं 

सपने परिंदे 
आँख उनींदे 
परिंदों सी कोई ख़्वाब में आती थी 
दिन वो बहुत याद आते हैं 

और अब... सच हैं कड़वे 
टूटे सपने / दूर अपने 
भरा पेट / भरी आँखें 

नहीं पता था - 
पेट भरने में आँखें भी भर आती हैं 
ज़िंदगी परिंदों-सी उडती जाती है 
चाँद का कटोरा खाली-सा लगता है 
कोई आता नहीं, उम्र गुज़र जाती है 

सच - 
दिन वो बहुत याद आते हैं !



नाकारा दिल...




मैंने दिल खोल के रख दिया 
उसने दिल तौल के...  रख दिया !

फिर कहा उसने - 
इस टूटे फूटे सामान के बदले 
क्या लेने आए हो पगले 
जाओ जाकर कहीं से 
चंद ऐसे सामान और ढूँढ लाना 
फिर लेके प्यार के चंद सिक्के जाना  
मैं ढूँढने गया भी मगर 
कहीं नहीं मिला मुझे 
मेरे दिल जैसा टूटा 
शै कोई और... 
मेरे टूटे दिल जैसा - 
कुछ भी और...
हार कर मैंने दिल को 
जिस कोने से निकाला था, वहीं... 
किसी काम का नहीं तू, 
बोल के रख दिया 

नाकारा दिल,
मैंने टटोल के रख दिया...!




Saturday, July 21, 2012

मेरा प्यार प्यार है...

मेरा प्यार प्यार है, कोई हवस नहीं 
मुझे तेरी चाहत है, कोई तलब नहीं 

वो तो मेरा चेहरा ही नक़ाब बन गया 
यूँ निहाँ होती मिरी शख्सियत नहीं 

काश के तूने दिल को दी होती तवज्जो 
दौलते-दो-जहाँ की थी तुझे जरुरत नहीं 

साँस है कि मुसलसल है यूँ ही आज भी 
गो रास कोई आती मुझे रवायत नहीं 

सोचता हूँ के आज वो आएँ तो कह दूँ 
नहीं मेरे ख़्वाबों, आज तबियत नहीं  

तलब =  लालसा, desire; नक़ाब = परदा, mask; निहाँ = आवृत, covered; 
शख्सियत = व्यक्तित्व, personality;  तवज्जो = प्राथमिकता, priority; 
मुसलसल = निरंतर, continued;  गो = यद्यपि, although; रवायत = रिवाज, tradition 


Saturday, June 2, 2012

रोशनी क़तरा-क़तरा...

रोशनी क़तरा-क़तरा, बिखरा कू-ब-कू 
मद्धम होके चाँद भी, तुझसा लगे हू-ब-हू 

साँस बहकी-बहकी, नज़र लहकी-लहकी 
होश भी हो खफा, तू जो आए रू-ब-रू 

खुशबू भीनी-भीनी, हँसी झीनी-झीनी 
हर सिम्त तू ही दिखे, महके तू-ही-तू 

ज़िस्म धनक-धनक, रूह फ़लक-फ़लक 
रंग तेरा, नूर तेरा, बाकी मैं हूँ-ना-हूँ 

कू-ब-कू = हर गली, every side; रू-ब-रू = आमने-सामने, face to face; 
सिम्त = तरफ, side; धनक = इन्द्रधनुष, rainbow; फ़लक = आकाश, sky  



Saturday, May 5, 2012

जब दिन बुझ जाए...

जब दिन बुझ जाए तो चाँद जला लेना 
छत पर बैठना, चाँदनी में नहा लेना 

उसकी यादों को रखना महफूज़ कुछ यूँ 
क़िताबों के वरक़ों में तस्वीर छुपा लेना 

पिछले पहर रात को जब नींद खुले 
दीये की लौ उठकर कुछ और बढ़ा लेना 

कहते हैं ख़ुदा बाशिंदा है दिल का 
हो सके तो किसी दिल का आसरा लेना 

यूँ तो दुआओं का क्या है मगर 
अबके घर जाओ तो सबकी दुआ लेना 

कुछ यूँ ही बसर होती है रात अपनी 
तकिये पे सर कभी सर पे तकिया लेना 

( महफूज़ = सुरक्षित, safe; वरक़ों = पन्नों, pages; 
बाशिंदा = रहने वाला, habitant; आसरा = सहारा, shelter )


Friday, March 2, 2012

वही सुबह, वही शाम...


वही सुबह, वही शाम, वही अहसासे-कमतरी
मैं तेरे साये से भी तंग आ गया हूँ, ऐ ज़िंदगी

टुकड़ों-टुकड़ों में बाँटने चला था मैं खुशियाँ
टुकड़ों-टुकड़ों में रूह मेरी आज वापस मिली

क्यूँ तेरे जहाँ में कोई अपना मिलता नहीं खुदा
क्यूँ तेरे क़ुदरत की हर शै बेहिसो-बेजान लगी

मैं उस जानिब मुड़ गया था, थी मेरी ही खता
क्या कीजै, उधर थी सराब और इधर तिश्नगी

कब चाही थी मैंने अजमत, कब अना से वास्ता
मैं भी था फ़कीर, भली थी मुझको मेरी अवारगी


Saturday, February 25, 2012

ख़्वाब, आँसू, रोशनी और...

ख़्वाब, आँसू, रोशनी और नमी-सी
ज़िंदगी में कहीं एक तुम्हारी कमी-सी
जिस मोड़ से मुड़ गए थे तुम राह अपनी
निगाहें वहीं कहीं हैं अब तक जमी-सी

संगे-दहलीज़ पर मेरी लौटोगे कभी तुम
यही वहमो-गुमाँ हमें, यही खुशफहमी-सी
कोई अब्र को दे दो पता मेरी आँखों का
के बरसने के बाद ज़रा हैं ये सहमी-सी


(संगे-दहलीज़ = चौखट, अब्र = बादल)


Saturday, February 11, 2012

ज़िंदगी के नाम...

चाँद की अंगीठी
सितारों के शरारे
बुझती शब है... आ,
कुछ उपले
(साँसों के)
और जला ले...

ये फ़कीर की रात है
कट ही जाएगी
सिमटते-सिकुड़ते-ठिठुरते
(जमाधन)
फटी कम्बल के सहारे...!!!


(अंगीठी = चूल्हा, शरारे = चिंगारियां, शब = रात, उपले = गाय के
गोबर से बना इंधन, जो गरीबों के चूल्हे में जलता है)


Sunday, February 5, 2012

तन्हाईयों का सबब है आदमी...

तन्हाईयों का सबब है आदमी
यूँ तो फिर तनहा कब है आदमी

कभी खलिश, सुकूँ, कभी खला
रूहो-ज़िस्म का तलब है आदमी

एक दिल, और वो भी पशेमाँ
कितना बेवज़ह-बेमतलब है आदमी

हर शख्स के हैं दो चेहरे यहाँ
खुद ही देव, खुद ही रब है आदमी

दो अलग उन्वान हैं आदमी-ओ-इन्सां
के पहले इन्सां हो ले, तब है आदमी


(खलिश = चुभन, खला = शून्य, तलब = कामना,
पशेमाँ = लज्जित, देव = शैतान, उन्वान = शीर्षक)