Sunday, October 30, 2011

जेरे-लब ये हँसी नन्ही-सी...

जेरे-लब ये हँसी नन्ही-सी
कहकशाँ में धुली चाँदनी-सी

सुरमई रात, दिल का आँगन
और तुम, कोई परी-सी

तुम, मैं और ये जज़्बात
चाँद, रात और मयकशी-सी

बिखरी-बिखरी निखरी-निखरी
हर तरफ इक रोशनी-सी

सौ अंजुम यकहा जल उठे
यूँ रुखसार पे लौ लहकी-सी

लम्हों के ज़िस्म पर तेरा लम्स
लिख रही दास्ताँ अनकही-सी


Sunday, October 23, 2011

वक़्त-बेवक़्त अदबो-आदाब की बातें...

वक़्त-बेवक़्त अदबो-आदाब की बातें
उनके लफ्ज़, गोया किताब की बातें

पेश्तर इससे कि कुछ हम भी कहते
ख़ल्क कह उठी- "सब ख्वाब की बातें"

जुल्मते-दौरां के मारे क्यों उठ बैठे
जो हमने ज़रा की माहताब की बातें

ज़ख्मे-खार को सीने में छुपा के कहीं
की चमन से हमने बस ग़ुलाब की बातें

बरहनाई का शौक जिनको था कभी
उनसे भी सुनी हमने हिजाब की बातें

कुछ देर तलक और बैठ साक़ी यहाँ
के बाकी बहुत हैं मेरे अज़ाब की बातें


Monday, October 10, 2011

एक ख्व़ाब और वो भी...

एक ख्व़ाब और वो भी
मिली पराई-सी
हर जानिब मिली हमें,
इक तन्हाई-सी

करके ज़ुदा ख़ुद से तेरे
ख़याल को हम
जिस राह निकले, मिली
तेरी परछाईं-सी

दर्द एक दुल्हन हो जैसे,
जब आई इस घर
कुछ ताने दुनिया ने दे दिए,
मुँहदिखाई-सी

चलो ये भरम ही सही हमारा,
मगर यूँ हुआ
ज़िंदगी जब भी मिली हमसे,
मिली शरमाई-सी

ये किस गली आ गए हैं हम
के लोगों यहाँ
फ़कीरे-इश्क़ को घर-घर
मिली रुसवाई-सी


Sunday, October 2, 2011

वक़्त - एक धुनिया

कोई है -
सरफिरा कोई,
अपने ही घर की दीवारों से
कान लगाए कहीं कुछ सुनता है

नहीं,
दीवाना है कोई -
वक़्त की शाख से झरे चंद फूल
शाम ढले, सन्नाटे में छुपकर चुनता है

कोई,
कैसे समझाए
ये जो दिल है, ये हर शब
एक नया ख्व़ाब क्यों बुनता है

वक़्त -
एक धुनिया
लम्हों की कपास एक कोने में
बैठा-बैठा, रोज यूँ ही धुनता है

तन्हा,
कुछ ख़फा-सा
दिल आज फिर गुमसुम
मन ही मन, जाने क्या गुनता है