Sunday, October 2, 2011

वक़्त - एक धुनिया

कोई है -
सरफिरा कोई,
अपने ही घर की दीवारों से
कान लगाए कहीं कुछ सुनता है

नहीं,
दीवाना है कोई -
वक़्त की शाख से झरे चंद फूल
शाम ढले, सन्नाटे में छुपकर चुनता है

कोई,
कैसे समझाए
ये जो दिल है, ये हर शब
एक नया ख्व़ाब क्यों बुनता है

वक़्त -
एक धुनिया
लम्हों की कपास एक कोने में
बैठा-बैठा, रोज यूँ ही धुनता है

तन्हा,
कुछ ख़फा-सा
दिल आज फिर गुमसुम
मन ही मन, जाने क्या गुनता है


1 comment:

smilekapoor said...

वक़्त एक धुनिया जो लम्हों की कपाश कहीं धुनता है..
उस से कहो की अब बोहोत हुई धुनाई . चलो अब कुछ सूत भी कात ले...
कुछ गर्म कपड़े बुन ले...मौषम बदलने वाला है...शर्द शामों में यूँ ही ठिठुर कर मरने का इरादा है क्या..?