Sunday, December 11, 2011

रात - २ बिम्ब


सारी रात,
चाँद जलाया मैंने...

सितारे,
शरारों की मानिंद -
बादलों की राख में सुलगते रहे!

सुबह हुई तो रात,
मेरी आँखों की दो हाँडी में
चंद शबनमी क़तरे छोड़ गई...

सारी रात,
अपना दर्द पकाया मैंने...!


रात -
एक अंधी बुढ़िया भिखारन
चाँद का कटोरा लिए बैठी थी...

जाने किस कमबख्त ने
गरीब दुखियारन के कटोरे में
ठेस लगा दी -
सारे सिक्के सितारों के
बिखर गए जहाँ-तहाँ

आज तलक,
वो अभागन -
अपना खोया सरमाया ढूँढ रही है...!


Sunday, October 30, 2011

जेरे-लब ये हँसी नन्ही-सी...

जेरे-लब ये हँसी नन्ही-सी
कहकशाँ में धुली चाँदनी-सी

सुरमई रात, दिल का आँगन
और तुम, कोई परी-सी

तुम, मैं और ये जज़्बात
चाँद, रात और मयकशी-सी

बिखरी-बिखरी निखरी-निखरी
हर तरफ इक रोशनी-सी

सौ अंजुम यकहा जल उठे
यूँ रुखसार पे लौ लहकी-सी

लम्हों के ज़िस्म पर तेरा लम्स
लिख रही दास्ताँ अनकही-सी


Sunday, October 23, 2011

वक़्त-बेवक़्त अदबो-आदाब की बातें...

वक़्त-बेवक़्त अदबो-आदाब की बातें
उनके लफ्ज़, गोया किताब की बातें

पेश्तर इससे कि कुछ हम भी कहते
ख़ल्क कह उठी- "सब ख्वाब की बातें"

जुल्मते-दौरां के मारे क्यों उठ बैठे
जो हमने ज़रा की माहताब की बातें

ज़ख्मे-खार को सीने में छुपा के कहीं
की चमन से हमने बस ग़ुलाब की बातें

बरहनाई का शौक जिनको था कभी
उनसे भी सुनी हमने हिजाब की बातें

कुछ देर तलक और बैठ साक़ी यहाँ
के बाकी बहुत हैं मेरे अज़ाब की बातें


Monday, October 10, 2011

एक ख्व़ाब और वो भी...

एक ख्व़ाब और वो भी
मिली पराई-सी
हर जानिब मिली हमें,
इक तन्हाई-सी

करके ज़ुदा ख़ुद से तेरे
ख़याल को हम
जिस राह निकले, मिली
तेरी परछाईं-सी

दर्द एक दुल्हन हो जैसे,
जब आई इस घर
कुछ ताने दुनिया ने दे दिए,
मुँहदिखाई-सी

चलो ये भरम ही सही हमारा,
मगर यूँ हुआ
ज़िंदगी जब भी मिली हमसे,
मिली शरमाई-सी

ये किस गली आ गए हैं हम
के लोगों यहाँ
फ़कीरे-इश्क़ को घर-घर
मिली रुसवाई-सी


Sunday, October 2, 2011

वक़्त - एक धुनिया

कोई है -
सरफिरा कोई,
अपने ही घर की दीवारों से
कान लगाए कहीं कुछ सुनता है

नहीं,
दीवाना है कोई -
वक़्त की शाख से झरे चंद फूल
शाम ढले, सन्नाटे में छुपकर चुनता है

कोई,
कैसे समझाए
ये जो दिल है, ये हर शब
एक नया ख्व़ाब क्यों बुनता है

वक़्त -
एक धुनिया
लम्हों की कपास एक कोने में
बैठा-बैठा, रोज यूँ ही धुनता है

तन्हा,
कुछ ख़फा-सा
दिल आज फिर गुमसुम
मन ही मन, जाने क्या गुनता है


Monday, September 26, 2011

दर्द से भींगती रहीं आँखें...

दर्द से भींगती रहीं आँखें, परवाह न किया
हाथ रखा सीने पर, फिर भी आह न किया

यूँ तो मुझसे भी हँसकर मिली थी ख़ुशी
दो पल से मगर ज्यादा निबाह न किया

सूखी धरती, बंजर सपने, बयाबान दिल
मेरी तरह किसी ने जिंदगी तबाह न किया

मुन्तजिर रहकर एक उम्र काट दी मैंने
किसी ने मगर, इस तरफ निगाह न किया


Wednesday, September 21, 2011

हासिल

बरसों तलक मैं
सहेजता रहा
आँसू के हर एक क़तरे को
अपनी पलकों के
सीपियों में

जमा करता रहा उस पर
दर्द की परत दर परत
इस उम्मीद में कि इक रोज़
ये मेरे सारे आँसू
बन जायेंगे मोती

मगर आज,
जब अचानक मैंने
अपने दिल के खजाने को टटोला
ग़म के चंद हीरे
मेरे हाथ लग गए...

वो आँसू मेरा सरमाया था,
ये ग़म मेरा हासिल है !!!


Friday, September 16, 2011

दो मुख़्तसर नज़्म...

 
"ना..." आत्मघात




सरे-शाम आत्मघात के
लिपटी पड़ी थी इरादे से
मुझसे फिर आँख की
मेरी तन्हाई... छत पर
चढ़े आँसू/
इस तन्हाई से चार पल
सख्त नफरत है मुझे ठहरे,
पर, तुम्हें ढूँढा -
और फिर
जब भी बाँहें खोले टप्प-से
आती है- गिर पड़े आँसू...!

मैं "ना"
नहीं कर पाता...!


Sunday, September 11, 2011

चाँद नहीं उगेगा कभी


रात जनाज़ा निकला था चाँद का
सितारे आए थे मय्यत में रोने,
आसमाँ ने अपने हाथों
एक सफ़ेद-शफ्फाफ-सा अब्र
ढक दिया था लाश के बदन पर...
बतौर कफ़न

और मैं, खामोश ये दर्द पी रहा था
जब तुमने मेरे हाथों में थमा दी थी कुदाल
मैंने अपने दिल की ज़मीन पर
आहिस्ते-से एक छोटा सा कब्र खोदा
और उसकी लाश कर दी मैंने...
चुपके से दफ़न

अब से मेरी हसरतों के आसमान पर
चाँद नहीं उगेगा कभी...!


Saturday, September 3, 2011

जिस रोज़ तेरे ज़िस्म के...

जिस रोज़ तेरे ज़िस्म के फूल महक जायेंगे
तुम्हारी कसम, हम थोड़ा सा बहक जायेंगे

शोलों को ग़र देती रही यूँ ही तुम हवा
बेशक़ इक रोज़ हम भी दहक जायेंगे

अब तो अक्सर ये हाल रहेगा तुम्हारा
सोचोगी मुझे और आँचल ढलक जायेंगे

छोडो भी शरमाना, पलकों को यूँ झुकाना
ये जो मय है आँखों में, छलक जायेंगे

अब जो छत पे आना, जरा चुपके से आना
राज़ खुल जाएगा, ग़र पाज़ेब खनक जायेंगे

कभी ये ग़ज़ल मेरी तुमसे मिले कहीं तो -
मिल बैठना, बातें करना, रुखसार दमक जायेंगे


Sunday, August 28, 2011

उदास आँखों का ख्वाब...



बस वही उदास आँखें, और उदास आँखों का ख्वाब
यही दो जहाँ मेरे, यही दो जहाँ का असबाब

एक-एक सतर, एक-एक सफहा, एक-एक बाब
'जिंदगी' उन्वान है जिसका, पढ़ता रहा हूँ वही किताब

यहीं कहीं दिलों की पनाह में एक आशियाँ हो मेरा
फिर क्या करना है दोज़खो-बहिश्त, अज़ाबो-सवाब

मैं अपने तौर पर जीने निकला हूँ, जी लूँगा
दुनिया, तू अपने ही पास रख अपने आदाब

मैंने दिल में मुहब्बत के चराग़ जला रखे हैं
वो चराग़ जिससे रश्क खाते हैं आफ्ताबो-माहताब

इक नूर से रोशन हैं लम्हा-लम्हा वादियाँ मेरे दिल की
देखें अब तारीकियाँ होती हैं किस तरह कामयाब

वक़्त की नज़र बचाकर चुरा रखा था मैंने जिसे
अक्सर तन्हाइयों में भीने-भीने महकता है वो गुलाब

बारहा सन्नाटों की आवाज़ ग़ज़ल बन जाती है
ये ग़ज़ल किसलिए? मुझसे पूछते हैं मेरे अहबाब