Saturday, February 25, 2012

ख़्वाब, आँसू, रोशनी और...

ख़्वाब, आँसू, रोशनी और नमी-सी
ज़िंदगी में कहीं एक तुम्हारी कमी-सी
जिस मोड़ से मुड़ गए थे तुम राह अपनी
निगाहें वहीं कहीं हैं अब तक जमी-सी

संगे-दहलीज़ पर मेरी लौटोगे कभी तुम
यही वहमो-गुमाँ हमें, यही खुशफहमी-सी
कोई अब्र को दे दो पता मेरी आँखों का
के बरसने के बाद ज़रा हैं ये सहमी-सी


(संगे-दहलीज़ = चौखट, अब्र = बादल)


Saturday, February 11, 2012

ज़िंदगी के नाम...

चाँद की अंगीठी
सितारों के शरारे
बुझती शब है... आ,
कुछ उपले
(साँसों के)
और जला ले...

ये फ़कीर की रात है
कट ही जाएगी
सिमटते-सिकुड़ते-ठिठुरते
(जमाधन)
फटी कम्बल के सहारे...!!!


(अंगीठी = चूल्हा, शरारे = चिंगारियां, शब = रात, उपले = गाय के
गोबर से बना इंधन, जो गरीबों के चूल्हे में जलता है)


Sunday, February 5, 2012

तन्हाईयों का सबब है आदमी...

तन्हाईयों का सबब है आदमी
यूँ तो फिर तनहा कब है आदमी

कभी खलिश, सुकूँ, कभी खला
रूहो-ज़िस्म का तलब है आदमी

एक दिल, और वो भी पशेमाँ
कितना बेवज़ह-बेमतलब है आदमी

हर शख्स के हैं दो चेहरे यहाँ
खुद ही देव, खुद ही रब है आदमी

दो अलग उन्वान हैं आदमी-ओ-इन्सां
के पहले इन्सां हो ले, तब है आदमी


(खलिश = चुभन, खला = शून्य, तलब = कामना,
पशेमाँ = लज्जित, देव = शैतान, उन्वान = शीर्षक)