Friday, March 2, 2012

वही सुबह, वही शाम...


वही सुबह, वही शाम, वही अहसासे-कमतरी
मैं तेरे साये से भी तंग आ गया हूँ, ऐ ज़िंदगी

टुकड़ों-टुकड़ों में बाँटने चला था मैं खुशियाँ
टुकड़ों-टुकड़ों में रूह मेरी आज वापस मिली

क्यूँ तेरे जहाँ में कोई अपना मिलता नहीं खुदा
क्यूँ तेरे क़ुदरत की हर शै बेहिसो-बेजान लगी

मैं उस जानिब मुड़ गया था, थी मेरी ही खता
क्या कीजै, उधर थी सराब और इधर तिश्नगी

कब चाही थी मैंने अजमत, कब अना से वास्ता
मैं भी था फ़कीर, भली थी मुझको मेरी अवारगी


2 comments:

क्षितीश said...

(अहसास = sense, कमतरी = subordinateness, रूह = soul,
बेहिस = numb, जानिब = towards, खता = fault, सराब = mirage,
तिश्नगी = thirst, अजमत = mightiness, अना = ego)

दिगम्बर नासवा said...

कब चाही थी मैंने अजमत, कब अना से वास्ता
मैं भी था फ़कीर, भली थी मुझको मेरी अवारगी ..

लाजवाब शेर हैं सभी ... गहरा एहसास लिए ..