Sunday, May 10, 2009

आज फिर...

आज फिर,
एक अनमना-सा अहसास
आकर बैठ गया मेरे पास,
न जाने कहाँ से
एक टुकड़ा खामोशी
पसर गई आँखों में
और मैंने फिर से
अपनी तन्हाई के
मासूम-से चेहरे को
जी-भर सहलाया था,
चेहरा- जिस पर
आँसुओं की कुछ
सूखी लकीरें थीं अब तक,
जैसे अभी-अभी
रोकर आई हो!

मैं चाहता था -
कुछ पूछूँ उससे,
पर इतने में
उसने पूछ डाले कई सवाल,
खड़े कर दिए
कितने ही प्रश्नचिह्न
मेरे अस्तित्व की
सार्थकता पर...
क्या हूँ मैं, क्यों हूँ मैं -
एक बेनाम-सी उलझन,
एक बेकार-सा दर्द...
क्या जिन्दगी और कुछ भी नहीं?


2 comments:

दिगम्बर नासवा said...

क्या लाजवाब अंदाज से पूछा है.........क्या जिंदगी कुछ भी नहीं..........
बहुत ही गहरी बात कही है..........ज़िन्दगी के कुछ अनसुलझे सवालों के बीच बुना ताना बना......

smilekapoor said...

एक बेनाम-सी उलझन,
एक बेकार-सा दर्द...
क्या जिन्दगी और कुछ भी नहीं?....

Sach me Zindagi kya aur kuchh v nahi..? Sochata hun to hairan ho rahta hun main v.
Magar fir issi Zindagi ki jaddojahad me iska jabab mil v jata hai :)