एक अनमना-सा अहसास
आकर बैठ गया मेरे पास,
न जाने कहाँ से
एक टुकड़ा खामोशी
पसर गई आँखों में
और मैंने फिर से
अपनी तन्हाई के
मासूम-से चेहरे को
जी-भर सहलाया था,
चेहरा- जिस पर
आँसुओं की कुछ
सूखी लकीरें थीं अब तक,
जैसे अभी-अभी
रोकर आई हो!
मैं चाहता था -
कुछ पूछूँ उससे,
पर इतने में
उसने पूछ डाले कई सवाल,
खड़े कर दिए
कितने ही प्रश्नचिह्न
मेरे अस्तित्व की
सार्थकता पर...
क्या हूँ मैं, क्यों हूँ मैं -
एक बेनाम-सी उलझन,
एक बेकार-सा दर्द...
क्या जिन्दगी और कुछ भी नहीं?
2 comments:
क्या लाजवाब अंदाज से पूछा है.........क्या जिंदगी कुछ भी नहीं..........
बहुत ही गहरी बात कही है..........ज़िन्दगी के कुछ अनसुलझे सवालों के बीच बुना ताना बना......
एक बेनाम-सी उलझन,
एक बेकार-सा दर्द...
क्या जिन्दगी और कुछ भी नहीं?....
Sach me Zindagi kya aur kuchh v nahi..? Sochata hun to hairan ho rahta hun main v.
Magar fir issi Zindagi ki jaddojahad me iska jabab mil v jata hai :)
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