Tuesday, May 6, 2008

मन की आँखों से...

तुम्हें देखा है मैंने कई बार,
शाम को, तुलसी के चबूतरे पर
दीये जलाते हुए,
पूजा की थाल सजा
शंख बजाते हुए,
और न जाने कितनी बार,
अपने बगीचे में
एक फूल-सा लहराते हुए.
हर शाम एक नयी अदा से,
देखा है तुम्हें मुस्काते हुए.


न जाने किसे देखकर,
तुम्हारे होंठों पर
खिल जाती है हँसी,
तेरे चेहरे को चूमकर
मचलती है लट शबनमी
और थम जाते हैं पाँव राहगीर के,
तुम्हें देखकर गाते हुए.


जाने क्या बात है कि
चलती हो जब तुम राहों में,
एक सुरूर1-सा छा जाता है
हर किसी की निगाहों में
और मजा आता है तुम्हें भी शायद
हर किसी को तड़पाते हुए.


तुम्हारे होंठों की जुम्बिश से,
अपने नाम का
हर किसी को गुमाँ होता है,
पर जलती है जो आग मेरे सीने में,
जरा भी नहीं धुआँ होता है.



तुमने देखा होगा नहीं, मुझे कभी
अपनी गलियों के फेरे लगाते हुए,
मुझे देखकर भी कभी,
तुमने महसूस की होगी नहीं, कशिश3 कोई
क्योंकि मेरा चेहरा, तुमसा नहीं
और झिझकता हूँ मैं,
तुम्हें अपनी मंशा4 बताते हुए.
मन की आँखों से,
क्या तुम कभी देख पाओगी,
मुझे प्यार जताते हुए???


1. नशा 2. कम्पन 3. आकर्षण 4. कामना, अभिप्राय


No comments: