Friday, September 19, 2008

जब तेरी नज़रों का...

जब तेरी नज़रों का नूर था, मैं कितना मगरूर था
अब लगता है दो दिन का बस वो तो एक सुरूर था

दरअस्ल एक सपना था, पलकों से फिसल गया
आँख खुली तो पाया- मैं तुमसे बहुत, बहुत दूर था

दर्द की जागीर से जाने कब एक क़तरा निकल गया
अश्कों को सम्हाल रखूँ, इतना भी ना शऊर था

तुम्ही कहो- क्या ख़ाक पूरा होता अरमाँ उसका
एक बौने को जो चाँद छूने का फ़ितूर था !!!


1 comment:

pallavi trivedi said...

दर्द की जागीर से जाने कब एक क़तरा निकल गया
अश्कों को सम्हाल रखूँ, इतना भी ना शऊर था

तुम्ही कहो- क्या ख़ाक पूरा होता अरमाँ उसका
एक बौने को जो चाँद छूने का फ़ितूर था !!!
waah....behtareen sher hain.