कोई मक़तूल अपने क़ातिल को ढूँढता है

सरे-शाम से चरागे-चश्मे-नम लिए
एक मुसाफिर अपनी मंजिल को ढूँढता है
कभी अपने खाली हाथ देखता है तो कभी
गुज़श्ता उम्र के हासिल को ढूँढता है
उठकर चला तो आया अपनी रौ में मगर
रह-रहकर तेरी ही महफ़िल को ढूँढता है
दरिया के एक किनारे खड़ा है और
दरिया के दूसरे साहिल को ढूँढता है
इस दश्त में हर दरख्त तन्हा-तन्हा-सा
अबकी बहार में अनादिल को ढूँढता है
3 comments:
uf! itna dard. kalyan ho. narayan narayan
बहुत सुंदर।
दरिया के एक किनारे खड़ा है और
दरिया के दूसरे साहिल को ढूँढता है
इस दश्त में हर दरख्त तन्हा-तन्हा-सा
अबकी बहार में अनादिल को ढूँढता है
सुन्दर अभिव्यक्ति।
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