मेरे आसपास-
हर पल, हर कहीं
बस तुम,
और...
और कुछ नहीं!
साँझ की चौखट पर
जलता हुआ एक दीया-
मेरे इंतज़ार में ही शायद
कहीं तुम हो.
भोर की देहरी पर
नरम-सी धूप का स्पर्श-
जैसे तुम्हारी हथेलियों ने
छुआ हो मुझे,
कुनमुना कर टूट जाती है नींद
और देखता हूँ-
सामने तुम हो.
शायद यह वहम हो मेरा,
पर...
तुम हो,
मेरे आसपास-
हर पल, हर कहीं...!!!
2 comments:
भोर की देहरी पर
नरम-सी धूप का स्पर्श-
जैसे तुम्हारी हथेलियों ने
छुआ हो मुझे,
कुनमुना कर टूट जाती है नींद
और देखता हूँ-
सामने तुम हो.
bhut hi sundar rachana. likhate rhe.
aapke andaaz se thodi alag hai... shayad zyada andar se aayi hai...
sachmuch, bahot achchi hai...
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