Monday, June 23, 2008

तुम हो मेरे आसपास...

तुम हो,
मेरे आसपास-
हर पल, हर कहीं
बस तुम,
और...
और कुछ नहीं!

साँझ की चौखट पर
जलता हुआ एक दीया-
मेरे इंतज़ार में ही शायद
कहीं तुम हो.

भोर की देहरी पर
नरम-सी धूप का स्पर्श-
जैसे तुम्हारी हथेलियों ने
छुआ हो मुझे,
कुनमुना कर टूट जाती है नींद
और देखता हूँ-
सामने तुम हो.

शायद यह वहम हो मेरा,
पर...
तुम हो,
मेरे आसपास-
हर पल, हर कहीं...!!!


2 comments:

Anonymous said...

भोर की देहरी पर
नरम-सी धूप का स्पर्श-
जैसे तुम्हारी हथेलियों ने
छुआ हो मुझे,
कुनमुना कर टूट जाती है नींद
और देखता हूँ-
सामने तुम हो.
bhut hi sundar rachana. likhate rhe.

Anonymous said...

aapke andaaz se thodi alag hai... shayad zyada andar se aayi hai...
sachmuch, bahot achchi hai...