अब लगता है दो दिन का बस वो तो एक सुरूर था
दरअस्ल एक सपना था, पलकों से फिसल गया
आँख खुली तो पाया- मैं तुमसे बहुत, बहुत दूर था
दर्द की जागीर से जाने कब एक क़तरा निकल गया
अश्कों को सम्हाल रखूँ, इतना भी ना शऊर था
तुम्ही कहो- क्या ख़ाक पूरा होता अरमाँ उसका
एक बौने को जो चाँद छूने का फ़ितूर था !!!
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दर्द की जागीर से जाने कब एक क़तरा निकल गया
अश्कों को सम्हाल रखूँ, इतना भी ना शऊर था
तुम्ही कहो- क्या ख़ाक पूरा होता अरमाँ उसका
एक बौने को जो चाँद छूने का फ़ितूर था !!!
waah....behtareen sher hain.
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