Sunday, August 28, 2011

उदास आँखों का ख्वाब...



बस वही उदास आँखें, और उदास आँखों का ख्वाब
यही दो जहाँ मेरे, यही दो जहाँ का असबाब

एक-एक सतर, एक-एक सफहा, एक-एक बाब
'जिंदगी' उन्वान है जिसका, पढ़ता रहा हूँ वही किताब

यहीं कहीं दिलों की पनाह में एक आशियाँ हो मेरा
फिर क्या करना है दोज़खो-बहिश्त, अज़ाबो-सवाब

मैं अपने तौर पर जीने निकला हूँ, जी लूँगा
दुनिया, तू अपने ही पास रख अपने आदाब

मैंने दिल में मुहब्बत के चराग़ जला रखे हैं
वो चराग़ जिससे रश्क खाते हैं आफ्ताबो-माहताब

इक नूर से रोशन हैं लम्हा-लम्हा वादियाँ मेरे दिल की
देखें अब तारीकियाँ होती हैं किस तरह कामयाब

वक़्त की नज़र बचाकर चुरा रखा था मैंने जिसे
अक्सर तन्हाइयों में भीने-भीने महकता है वो गुलाब

बारहा सन्नाटों की आवाज़ ग़ज़ल बन जाती है
ये ग़ज़ल किसलिए? मुझसे पूछते हैं मेरे अहबाब